ईस्टर रविवार, 21 अप्रैल 2025 को पोप फ्रांसिस ने वेटिकन सिटी के डोमुस संक्ते मार्थे में 88 वर्ष की उम्र में अंतिम सांस ली। 2013 में जब उन्हें पोप चुना गया, तो उन्होंने इतिहास रच दिया—पोप बनने वाले वे पहले लैटिन अमेरिकी, पहले जेसुइट और पहली बार दक्षिणी गोलार्ध से चुने गए पोप थे। उनके कार्यकाल के दौरान चर्च में विनम्रता, सामाजिक न्याय और करुणा की एक नई लहर दिखाई दी।
पोप फ्रांसिस का असली नाम होर्गे मारियो बर्गोलियो था। वे अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में 17 दिसंबर 1936 को पैदा हुए और एक साधारण परिवार से निकले थे। उनके माता-पिता इटली से आकर बस गए थे। बर्गोलियो की शिक्षा और जीवनपर्यंत आदर्शों पर उनके परिवार की ‘साधारणपन में सच्ची गरिमा’ की छाप दिखाई देती रही।
1958 में बर्गोलियो ने जेसुइट संस्था के सदस्य बनकर खुद को शिक्षा और सेवा के लिए समर्पित कर दिया। 1973-1979 के दौरान वे अर्जेंटीना के जेसुइट प्रांतीय प्रमुख भी बने और फिर उन्होंने Colegio de San José के रेक्टर के रूप में भी सेवाएं दीं। इसके बाद बर्गोलियो ने जर्मनी से डॉक्टरेट की डिग्री भी हासिल की।
जब 2013 में धर्मगुरु चुना गया, तब उनका पहला सम्बोधन और विचार साफ थे—उन्हें ‘विश्वास, विनम्रता और करुणा’ की राह पर चलना है। उनका पोंटिफिकेट चर्च की परंपरागत छवि को बदलने के लिए जाना गया। ‘Miserando atque eligendo’ (दया करके चुना)—उनका चर्च का आदर्श वाक्य, अक्सर उनके फैसलों और व्यवहार में साफ झलकता था।
पोप फ्रांसिस ने गरीबों, प्रवासियों और हाशिए के नारियों के पक्ष में कई प्रतीकात्मक और वास्तविक कदम उठाए। अक्सर वे ईस्टर के दौरान शरणार्थियों के पैर धोते थे—यह चर्च के मजबूत, परंपरा में जकड़े माहौल में एक बहादुरी भरा बदलाव था।
चर्च के भीतर की कई परंपराएं—जैसे प्रशासनिक पारदर्शिता, लैंगिक समानता पर चर्चा और यौन-अपराधों के मामलों पर सख्ती—उनके कार्यकाल की पहचान रही। पारंपरिक आडंबरों को छोड़कर वे आम आदमी के करीब दिखना चाहते थे: साधारण रात्रि निवास, सादी ड्रेस, और निजी संपर्क में अपनापन।
उनकी मृत्यु के साथ ही ऐसे युग का अंत हुआ जो चर्च की छवि नए मायनों में परिभाषित कर गया। पोप फ्रांसिस के कार्य और विचार अगले पोप और पूरे कैथोलिक समुदाय के लिए प्रेरणा बनकर रहेंगे। उनके बाद चर्च का चेहरा समय के साथ कैसे बदलता है—अब सबकी निगाहें इसी पर रहेंगी।